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ये जगह 1857 में आजादी की पहली लड़ाई की गवाह रही है ….

India Junction News Bureau

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Published: June 5, 2024 6:09 pm

ये जगह 1857 में आजादी की पहली लड़ाई की गवाह रही है ....

देश की आज़ादी के ऐतिहासिक संघर्षों का जब भी जिक्र आता है तो लखनऊ की रेजीडेंसी की बात किए बिना वो अधूरा ही रहता है . ये जगह 1857 में आजादी की पहली लड़ाई की गवाह रही है. ये लड़ाई 1 जुलाई से 17 नवम्बर 1857 तक जारी रही थी. आज भी यहां गदर के निशान साफ़ देखे जा सकते हैं
रेजीडेंसी का निर्माण 1774 में नवाब आसफुद्दौला ने अंग्रेज रेजिडेंट के लिए कराया था. इसलिए इसे रेजीडेंसी कहा जाता है. नवाब आसफुद्दौला ने 1775 में अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित करने के बाद रेजिडेंट के निवास के लिए इसका निर्माण शुरू किया और नवाब सआदतअली खा ने इसे पूरा किया.
1857 में क्रांतिकारियों द्वारा 5 महीनों की ऐतिहासिक घेराबंदी के दौरान रेजीडेंसी की इमारतें गोलाबारी से बुरी तरह क्षतिग्रस्त या पूरी तरह धराशाई हो गई थी. लगभग 33 एकड़ क्षेत्रफल में निर्मित रेजीडेंसी में आज भी आजादी के जंग की तमाम निशानियों को संजोए हुए खंडहर के रूप में सीढ़ीदार लॉन और बगीचों से घिरा हुआ है. यहां कब्रिस्तान भी है जिसमें 2000 पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सहित सर हेनरी लॉरेंस की भी कब्र है. जिनकी मौत घेराबंदी के दौरान हुई थी.

चिनहट की लड़ाई के अगले दिन 30 जून 1857 को सैय्यद बरकत अहमद के नेतृत्व में हिंदुस्तानियोें ने इस विदेशी गढ़ पर गोलीबारी शुरू कर दी. क्रांतिकारियों ने 86 दिन तक यहां अपना कब्जा रखा. बेली गारद गेट से अंदर जाने के बाद दाहिने हाथ पर खंडहर सा दिखने वाला भवन उस जमाने में कोषागार भवन हुआ करता था. इसे 1851 में 16897 रुपये की लागत से बनवाया गया. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय इस भवन के मध्य भाग को इनफील्ड कारतूस बनाने के कारखाने के रूप में इस्तेमाल किया गया.

रेजीडेंसी परिसर में ही खंडहर सा दिखने वाला एक भवन उस जमाने में डॉ. फेयरर का घर हुआ करता था. 1857 में जब घेराबंदी हुई उस दौरान वह रेजिडेंट सर्जन थे. क्रांतिकारियों के हमले में जो लोग घायल होते थे उनका इलाज इसी भवन में किया जाता था. इस भवन में एक तहखाना भी था जो आज भी देखा जा सकता है. क्रांतिकारियों ने जब घेराबंदी की तो महिलाओं और बच्चों को अंग्रेजों ने यहीं सुरक्षित रखा था.

ऐसा कहा जाता है कि यह 2 मंजिला इमारत इस पूरे परिसर में संभवत सबसे भव्य थी जिसके शानदार कक्ष और सभागार कीमती झाड़ फानूस, आइनो और रेशमी दीवान से सजे थे। यहाँ सम्मान में दावते की जाती थी। सभागार में कीमती फर्नीचर के साथ ही उच्च कोटि की कारीगरी की गई थी. छत तक पहुंचने के लिए घुमावदार सीढ़ियां बनी थी. इसकी छत इतालवी लोहे की छड़ों से सुरक्षित थी. इमारत में गहरे तहखाने थे जिनसे अंग्रेजों को लखनऊ की भयंकर गर्मियों में काफी राहत मिलती थी. अब इस भवन की छत पर देश की शान तिरंगा लहराता नज़र आता है.

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